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आदमी सोचता है की ऐसा हो

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 आदमी सोचता है की ऐसा हो   दिल चाहता है जो वैसा हो गरीबी कोई गुनाह तो नहीं पर जैसा हो पास पैसा हो आईने में चेहरा देखने से पहले बदसूरत भी चाहे साफ शीशा  हो महलो में भी सुकूँ मिलता नहीं आशियां हो भी तो कैसा हो साग़र में रह के देखता है आसमां कहीं ऐसा तो नहीं वो प्यासा हो

ये ज़िन्दगी हादसों का महल है

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                     ये ज़िन्दगी हादसों का महल है           इक हादसा यहाँ  होता हर पल है                    क़ज़ा है दरबान दर पे इसके                     कि सीढ़ियाँ भी जैसे दलदल है           रंजो-ग़म से बनी दीवारें है इसकी           गुलशन भी इसका ख़ूनी जंगल है                     ख़्वाब टूटते है इसी सेज पर                     यहाँ सुर्ख़ लहू का मखमल है              कई आरज़ू तो जी भी नहीं पाती             अरमानों का यहीं होता क़तल है                        हुनर नहीं कोई जज़्बात भी नहीं                        यारो ये ग़ज़ल हादसों की ग़ज़ल है